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Monday, July 20, 2009

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"स्पंदन"

मेरे ह्रदय के स्पंदन से
एक तरंग उठी
भावनाओं में ढ़ल कर
शब्द-बद्ध हुई
इसे समझने को
न केवल मेरी दृष्टि ही
बल्कि चाहिए
मेरे ह्रदय का सा स्पंदन
और चाहिए
भावना ऐसी ही
किन्तु भावना-शून्य यह जग
क्या समझ पाये गा
इन शब्दों में छुपी
मेरे अन्तस की प्रताड़ना को
जो सह्स्त्रों सदियों में भी
अंगीकार न कर पाया हो
व्यथा
अपने से
परन्तु, मूक व बघिर प्राणी की
क्या समझ पायेगा वो जग !
ह्रदय में गुंथी भावना को
क्या समझ पायेगा वो जग
शब्दों में छुपी भावना को !!
- अनिल चडडा

2 Comments:

Blogger दिगम्बर नासवा said...

lajawaab likha hai aapne.......in mook bhole bhaale praaniyon ke baare mein...

July 20, 2009 at 6:45 PM  
Blogger ओम आर्य said...

bahut hee sundar likha hai .......khubsoorat

July 20, 2009 at 7:52 PM  

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