अकुलाहट
मैं जानता था
मेरी अकुलाहट
किसी दिन
ज़रूर रंग लायेगी
शब्दों में गुंथ कर
पन्नों पर उतर आयेगी
हर क्षण
हर पल
ह्रदय के द्वार पर
जो आहट सी होती थी
मेरे आसपास की वेदना को
चेतना में पिरोती थी
मेरी रचना तो
इसी समाज़ की धाती है
यह मेरे नहीं
समाज़ के गीत गाती है
इसमें त्रस्त अनुभूतियों का
सारांश है
यह सहनशीला धरती नहीं
आक्रोश की ज्वाला से
तपता आकाश है !
- डा0 अनिल चड्डा
मैं जानता था
मेरी अकुलाहट
किसी दिन
ज़रूर रंग लायेगी
शब्दों में गुंथ कर
पन्नों पर उतर आयेगी
हर क्षण
हर पल
ह्रदय के द्वार पर
जो आहट सी होती थी
मेरे आसपास की वेदना को
चेतना में पिरोती थी
मेरी रचना तो
इसी समाज़ की धाती है
यह मेरे नहीं
समाज़ के गीत गाती है
इसमें त्रस्त अनुभूतियों का
सारांश है
यह सहनशीला धरती नहीं
आक्रोश की ज्वाला से
तपता आकाश है !
- डा0 अनिल चड्डा
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