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Tuesday, July 7, 2009

www.blogvani.com चिट्ठाजगत
"आदत"

धुएं सी टूटन
उभर कर
जब-तब
मन को घेर लेती है
ज़रा सी बात भी
शूल सी लगती है
जीवन का पर्दा
हालात की हवाओं से
जब उड़-उड़ जाता है
तब
भावना
तिनके सी
बिखर-बिखर जाती है
तुम्हे कहा भी था
उबड़-खाबड़ रास्तों पर
फूल न बिछाओ
छाले पड़ जायें गें
कांटों पर
चलने की आद्त
बिसरा दूंगा
फिर कौन मुझे
राह दिखाये गा
अब तुम्ही बताओ
कौन
मेरी उंगली पकड़ कर
मुझे चलाये गा
तुम्हे तो मंजिल मिल चुकी
मैं तो, कुहासे से घिरा-
स्तंभित सा -
चौराहे पर
भटक गया हूं !