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Sunday, August 9, 2009

www.blogvani.com चिट्ठाजगत
"बदलते आदर्श"

(2)
हे राम
यकीनन तुम भगवान न थे
कुंठित समाज़ की
कठपुतली - मात्र इन्सान थे
तभी तो
आदर्शों की होली में
झोंक दिया था
सीता का तन
केवल लांछन से
छोड़ दिया
भटकने को बन-बन
यह तो सोचा होता
कल कौन बनेगी सीता
जिसे केवल
अहंतुष्टि के लिये
यूँ ही जलना पड़े
बन-बन भटकना पड़े
धरती का ग्रास बनना पड़े
राम, तुम तो राम ही रहे
सीता ही रही न सीता