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Tuesday, July 14, 2009

www.blogvani.com चिट्ठाजगत
"भटकन"

आसमान
मेरे सिर से
इतना ऊंचा उठ चुका था कि
मैं स्वय को
स्वयं से ही
बौना मह्सूस कर रहा था
शाम जब धुंधला रही थी -
रात के आंचल में छुपने को -
मेरे मन के भीतरी साये
शनै: शनै:
सिर उठा रहे थे
ताले में बंद
मेरे उन्मादों पर
चुपके से सेंध लगा रहे थे
आँख बंद करने से क्या होगा
मुँह सी लेने से क्या होगा
स्वयँ को स्वयँ की नज़र से
देखने के लिये
बंद पलकों से ज्यादा
रौशनी कहाँ मिलेगी
अपनी ही बात सुनने को
कानों की क्या ज़रूरत है
फिर भी
मन अँधा बन
बहरा होने का
ढ़ोंग क्यों करता है?
कोई उंग्ली पकड़ कर
राह दिखलाये
क्यों चाहता है?
-डा0अनिल चडडा