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Saturday, October 10, 2009

www.blogvani.com चिट्ठाजगत
"विष-अमृत"

जब से
आस्तीनों से
साँप निकलने लगे
तब से
मैंने आस्तीनों वाले
वस्त्र ही पहनने छोड़ दिये
पर
अपनी भुजाओं का
क्या करूँ ?
जो साँप बन
मुझे ही
डसने को तत्पर हैं !
मेरे दोस्त,संगी, साथी, पत्नी, बेटा-बेटी
सब ही तो
मेरी भुजाएँ थी
कैसे काटता इन्हे ?
काट भी पाता क्या??
अवश हो
चारों ओर से
ग्रहण किया हुआ विष
पन्नों पर उँडेलता हूँ जब
तो वह भी
सर्पों से लपलपाते
मुझे ही
डसने को उचकते हैं
मेरी व्यथा
मैं ही तो समझ पाऊँगा
शेष सब की संवेदना तो
उनके अंदर के विष से
छिन्न-भिन्न हो
मर चुकी है
पर यह विष
मेरे लिये तो
अमृत सिद्ध हो रहा है -
मेरी संवेदना
और पैनी हो
इस विष को
समय-समय पर
पन्नों पर
उतारती चली जा रही है !